Sunday, January 24, 2010

आत्म विश्वास

कल मेट्रो स्टेशन तक जाने के लिए मैं जिस रिक्शे पर था , उसे चलने वाला एक कम्बल ओढ़े रिक्शा चला रहा था । भीड में से निकलते समय वह बार -बार कहते जा रहा था कि मेरे रिक्शे पर बैठ कर मन को प्रसन्न रखो , कभी दुखी मत होना । मेट्रो स्टेशन पहुँच कर पूछा -" कितने पैसे "? बाबू जी जितने भी आप दें , ठीक है , मैं गरीब जरूर हूँ लेकिन दिल का राजा हूँ । बारहवीं पास हूँ । मैंने पूछा - कोरिअर कंपनी में कोई नौकरी करना चाहोगे ? " नहीं साहब , अब इसी रिक्शा चलाने में आनंद आता है , रोज़ के अढाई -तीन सौ रूपया कमा लेता हूँ । किसी की नौकरी करना अच्छा नहीं लगता।" मुस्कराते हुए उसने ने जवाब दिया और चल दिया ।

मुझे वह कहानी याद आ गयी , जब उदास सिकंदर को एक फकीर ने कहा था में कुछ न होते हुए भी आनंद में हूँ और तुम इतने मुल्कों को जीतने के पश्चात् भी दुखी हो , दुनिया को जीतने के लिए।

आनंद हमारे पास है , प्रभु की क्रिपायों के रूप में , हम स्वयं ही दुखी होते हैं .